मुसाफिर
कैफे (Musafir
Cafe)
पढ़ लीजिए एक बार
“मुसाफिर Cafe” दिव्य प्रकाश दुबे की लिखी हुई पुस्तक हैं, किताब की शुरुआत ही बहुत दमदार है,
लेखक ने अपने शब्दों कहा है "बातों को जब
पहली बार किसी ने संभाल के रखा होगा तब पहला पन्ना बना होगा, ऐसे पन्नों को जोड़कर पहली किताब बनी होगी।
कहानी शुरू होती है, हमारे समाज का सबसे मज़बूत
रिश्ता मतलब "शादी" के लिए की गई लड़का (चंदर) –लडकी (सुधा) की पहली
मुलाकात से । चंदर अछी-भली नौकरी कर रहा हैं और दुनिया के हिसाब से सेटल्ड है, और सुधा सुधा एक फैमिली वकील है।
जो कोर्ट में रोज टूटती शादियां देख फैसला कर लेती है कि वह शादी नहीं करेगी, और
ये दोनों घर वालो के कहने के अनुसार एक कैफे में मिलते है, फिर इन की मुलाकात
बार-बार होने लगती है और ये दोनों एक ही घर में शादीशुदा लोगों की तरह रहने लगते हैं। चंदर
चाहता है, कि वह सुधा से शादी कर ले लेकिन
सुधा शादी नहीं करना चाहती। सुधा गर्भवती हो जाती हैं, इसको
लेकर चंदर सुधा से शादी के लिए दबाव बढ़ा देता है और इसी बात पर दोनों में विवाद
होता है। चंदर गर्भवती सुधा और नौकरी-घर सब कुछ छोड़कर एक अनिश्चित सफर पर निकल
जाता है। घूमते-घूमते वह मसूरी पहुंचता है, वहां उसकी मुलाकात पम्मी से होती है। जहाँ
चंदर पम्मी दोनों मिलकर एक कैफे खरीदते
हैं, जिसका नाम रखते हैं “मुसाफिर कैफे” ! समय गुजरता रहता है, और दस साल बाद चंदर और सुधा की मुलाकात इसी मुसाफिर कैफे होती है,
और फिर चंदर, सुधा, उनका
बेटा (अक्षर) और पम्मी सब साथ रहने लगते हैं, इसी के साथ उपन्यास की कहानी का अंत
बहुत ही सुखद होता है।
इस उपन्यास को पढ़ने से लगता है, कि लेखक ने युवा
वर्ग के जीवन के बंधन से मुक्त जीवन जीने उन्मुक्त जीवन को एक आदर्शवादी अंजाम तक
पहुंचाने की कोशिश की है,
उपन्यास समाज की बनी हुई पुरानी बातों को तोड़ता है और नई पीढ़ी के मनोभावों को
व्यक्त करने में सक्षम है।
-:किताब से ली गई कुछ अच्छी लाइन:-
“बातें हमारे शरीर का वो जरुरी
हिस्सा होती है जिनको कोई दूसरा ही पूरा कर सकता है। अकेले बड़बड़ाया जा सकता है,
पागल हुआ जा सकता है, बातें नहीं की जा सकती”
“कहानियाँ कोई भी झूठ नहीं होती । या तो वो हो
चुकी होती है या वो हो रही होती हैं या फिर वो होने वाली हैं।”
“पहली हर चीज की बात हमेशा कुछ अलग होती है क्योकि
पहला न हो तो दूसरा नहीं होता, दूसरा न हो तो तीसरा, इसलिए पहला कदम ही जिन्दगी भर
रास्ते में मिलने वाली मंजिले तय कर दिया करता हैं।”
“जो सुन के अच्छा लगता है वो अच्छा होता हैं और
जो सुन के भी अच्छा न लगे वो अच्छा होकर भी अच्छा नहीं होता।”
“वो रिश्ते कभी लंबे नहीं चलते जिनमें सबकुछ जान
लिया जाता है ।”
“जिन्दगी एक ऐसा राज है जो बिना जाने हर जेनेरेशन
बस आगे बढ़ते चले जाती है ।”
“सच्ची आजादी का कुल मतलब अपनी मर्जी से भटकना हैं
।”
“ठिकाना तो कोई भी शहर दे देता हैं, गहरी नीद कम
शहर दे पाते हैं ।”
“किसी को समझना हो तो उसकी शेल्फ में लगी किताबो
को देख लेना चाहिए, किसी की आत्मा समझनी हो तो उन किताबो में लगी अंडरलाइन को पढ़ना
चाहिए ।”
“जिनको गहरी नीद नहीं आती वो समझ पाते हैं कि
दुनिया में सुबह से अच्छा कुछ होता ही नहीं । किसी भी चीज को हम सही से समझ ही तब
सकते हैं जब उसको पाकर खो दे ।”
“गलतियाँ सुधारनी जरुर चाहिए लेकिन मिटानी नहीं
चाहिए। गलतियाँ वो पगडंडियाँ होती है जो बताती रहती हैं कि हमने शुरू कहाँ से किया
था।”
“जिनको कभी-कभी गुस्सा आता है उनको
जब गुस्सा आता है तो वो कंट्रोल नहीं कर पाते। इसलिए थोड़ा-थोड़ा गुस्सा करते रहना
चाहिए, रिश्तों और जिंदगी चलाते रहने के लिए अच्छा रहता है।”
“लाइफ को लेकर प्लान बड़े नहीं,
सिम्पल होने चाहिए। प्लान बहुत बड़े हो जाएँ तो लाइफ के लिए ही जगह
नहीं बचती।”
“एक बार ये भी लगा कि उस दिन कोई
बात अधूरी रह गई। असल में बातें हमेशा अधूरी ही रहती हैं। ऐसा तो कभी होता ही नहीं
कि हम बोल पाएँ कि मेरी उससे जिंदगी भर की सारी बातें पूरी हो गईं। हम सभी
अपने-अपने हिस्से की अधूरी बातों के साथ ही एक दिन यूँ ही मर जाएँगे।”
“किसी से मिलकर नाइस मीटिंग यू अगर
कभी लगा भी करे तो बोला मत करो। कुछ चीज़ें बोलते ही कचरा हो जाती हैं।”
“समंदर जितना बेचैन होता है हम
उसके पास पहुँचकर उतना ही शांत हो जाते हैं। यही ज़िन्दगी का हाल है - पूरा बेचैन
हुए बिना जैसे शांति मिल ही नहीं सकती।”
पुस्तक : मुसाफिर कैफे (Musafir Cafe)
लेखक : दिव्य प्रकाश दुबे
प्रकाशक : हिन्द युग्म और वेस्टलैंड
आई एस बी एन (ISBN) : 989-38-6224-01-9
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